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साभार : फोक्स हिमाचल में तेजपाल नेगी, सोलन का लेख
भारत में आपातकाल के समय रेडियो व मंचों पर एक नाटक को बैन कर दिया गया था, नाम था 'तपती सलाखें'। आपातकाल हटा और इसके बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी शिमला आईं। नाटक का लेखक बेखौफ उनके सामने जा डटा, उसने प्रतिरोध स्वरूप इंदिरा गांधी के सामने अपने नाटक की पूरी स्क्रिप्ट फाड़कर उसके कतरे हवा में उड़ा दिए। इसके कुछ दिन बाद इसी शायर ने एक गजल लिखी, जिसके शे'र थे :-
'मेरे दिल से उठेगा तो तेरे जिगर से गुजरेगा,
यह दर्द है आखिर, चाहे जिधर से गुजरेगा।
तेरे कदमों पर जो कतरा टपका है मेरी आंख से,
ये वो पानी है जो एक दिन तेरे सर से गुजरेगा।।'
चरित्र में हरियाणा जैसी बेखौफी, अल्फाज में शिमला जैसी ठंडक और लहजे में सोलन जैसे तेवर रखने वाला यह शायर और नाटककार था अमर सिंह 'फिगार'। 'फिगार' एक ऐसा नाम जिसने उर्दू गजल को शराब और शबाब से निकालकर हकीकत की जमीन पर ला खड़ा किया। उनकी इसी खासियत ने उन्हें उस समय के नामी गिरामी शायरों से अलग कतार में ला खड़ा किया। उनकी साफगोई ने उन्हें न तो कभी पहली पंक्ति का शायर बनने दिया और न ही उनके घर की हालत में कभी सुधार आया। पुलिस में नौकरी करते हुए भी फिगार साहब ताउम्र किराये के मकान में ही रहे।
हरियाणा के जिला जिले के रहने वाले अमर सिंह बचपन से ही मस्तमौला मिजाज वाले थे। उस वक्त पंजाब, हरियाणा और हिमाचल का काफी बड़ा हिस्सा पंजाब राज्य में ही आता था। अमर सिंह परिवार चलाने के लिए पुलिस में भर्ती हो गए, लेकिन यहां भी उनका मन अपराधियों के पीछे भागने में नहीं लगा। वर्दी पहनने से हमेशा कतराते, शायराना मिजाज के थे तो अफसर उनसे प्रसन्न रहते थे। उस वक्त के आईजी ने उनपर मेहरबानी करके उन्हें शिमला सीआईडी में तैनात कर दिया। 1958 से 1980 तक लगातार 22 साल तक उन्होंने शिमला में ही नौकरी की। उनके मित्र कुल राकेश पंत बताते हैं कि शिमला में रहते हुए अमर सिंह के भीतर का 'फिगार' जवान हुआ, शुरू में शिमला के स्कैंडल प्वॉइंट के पास एक लाठी हाथ में लेकर सादे कपड़ों में टोपी पहनकर खड़े रहने वाले इस शख्स को वे नहीं पहचानते थे, लेकिन जब शिमला के गेयटी व अन्य स्थानों में होने वाले मुशायरों में उन्हें उस समय के नामी गिरामी शायरों में अरमान, तलत इरफानी, जिया सिद्दीकी, तूर साहब, एचके मिट्टू, सत्येंद्र शर्मा, श्री निवास श्रीकांत आदि के साथ गजल पढ़ते सुना तो मैं भी उनकी बेबाकी का कायल हो गया। पंत बताते हैं व्यवस्था के खिलाफ आवाज उठाने की आदत नौकरी में गाहे-ब-गाहे उनके लिए परेशानी बनती रही। बड़े-बड़े लोगों व अधिकारियों से जान-पहचान होने के बावजूद उन्हें प्रमोशन तक नहीं मिला। मिलता भी कैसे, जरा जनाब के तेवर तो देखिए :-
'जोश-ए-तकमील-ए-तमन्ना है ख़ुदा ख़ैर करे
ख़ाक होने का अंदेशा है ख़ुदा ख़ैर करे ।
तू ने घर यूं तो बुलंदी पे बनाया है 'फ़िगार'
तू मगर नींद में चलता है ख़ुदा ख़ैर करे ।।'
1980 आते-आते 'फिगार' साहब तपेदिक रोग का शिकार हो गए। अधिकारियों ने उन्हें शिमला की अपेक्षा अधिक गर्म बिलासपुर, हमीपुर और सोलन में ट्रांसफर लेने की सलाह दी, लेकिन फिगार साहब का पहला प्यार तो शिमला ही था। अंतत: उन्होंने सोलन में रहना उचित समझा। परिवार के साथ वे यहीं आ बसे। इतना पैसा नहीं था कि सोलन में एक जमीन का टुकड़ा खरीद सकते। सो हाउसिंग बोर्ड में किराये के मकान में रहने लगे। उनके छोटे बेटे सुधीर नायक अब गुड़गांव में जॉब करते हैं, हमने उनसे भी संपर्क किया। सुधीर ने बताया कि जैसे दूसरे साहित्यकारों के घर पर किताबों का ढेर लगा होता है। ऐसे उनके घर में कभी नहीं हुआ। उनके घर में कुल जमा चार किताबें होती थीं, जिनमें एक उर्दू की डिक्शनरी होती थी तो दूसरी उर्दू के शेर-ओ-शायरी के रिसाले, बाकी दो किताबें पुस्तकालय से लाकर पिता जी पढ़ा करते थे। हां पुस्तकालय में जाकर पढ़ना उनके पिता की आदत में शुमार था। वे अपनी शायरी को हकीकत के नजदीक रखने की कोशिश करते थे।
फिर कोई मुश्किल जवां होने को है
दोस्तों का इम्तिहां होने को है।
झोंके दम साधे खड़े हैं चार-सू
कोई हंगामा यहां होने को है।।
1980 में वे सोलन आए तो यहीं के होकर रह गए। यहां सपरून हाउसिंग बोर्ड के मकान नंबर पांच से ही तीन बेटों के विवाह तो कर दिए, लेकिन एक बेटी व सबसे छोटा अभी पढ़ ही रहे थे। अधिकारियों ने उनकी बीमारी को देखते हुए सोलन की ट्रेजरी में उनकी ड्यूटी लगा दी। 9 मई वर्ष 2000 को फिगार साहब की जीवन डोर अचानक टूट गई। बीमारी के कारण अंतिम एक डेढ़ साल वे दुनिया जहान से कटे रहे, इसलिए उनकी मौत की खबर भी अखबारों के संक्षिप्त कालम में ही स्थान घेर पाई। शायद इसी दिन के लिए उन्होंने कहा था:-
मजबूरियों में बांट ले जो दर्द कौन है
पलकों से झाड़े गुल पे जमी गर्द कौन है।
यारब मुझे चढ़ा दे किसी हादसे की भेंट
देखूं कि मेरा शहर में हमदर्द कौन है।।
भले ही 'फिगार' साहब व उनका परिवार उनके रहते तंगहाली की हद से बाहर नहीं निकल सका, लेकिन ये हालात भी 'फिगारश् साहब की कलम को बांध नहीं सके। वे लिखते तो कलम तोड़ देते
गलियों में यूं न फेंक तू टुकड़े गिलास के
बच्चे हैं नंगे पांव तेरे आसपास के।
जिनके उभरते जिस्म को कपड़े नहीं नसीब,
फिर क्यों न वो खेत जला दें कपास के।।
जब तत्कालीन इंदिरा गांधी के सामने फाड़ दी नाटक की स्क्रिप्ट
जब देश में इंदिरा गांधी ने आपातकाल लागू किया तो उस वक्त 'फिगार' साहब का लिखे हुए नाटक 'तपती सलाखें' का प्रसारण आकाशवाणी पर हो रहा था, मंचों पर भी नाटक हो रहे थे। प्रशासन ने इस नाटक को भी राष्ट्रद्रोह मानते हुए उसके प्रसारण व मंचन पर पाबंदी लगा दी। खैर, आपातकाल हटा और कुछ वर्षों के बाद इंदिरा गांधी का दोबारा शिमला आना हुआ। इस पर 'फिगार' साहब अपने नाटक की स्क्रिप्ट लेकर उनसे मिलने जा पहुंचे। उन्होंने नाटक पर रोक को अभिव्यक्ति की आजादी पर हमला बताते हुए स्क्रिप्ट को फाड़कर हवा में उछाल दिया और बिना समय गवाएं वहां से चले आए। इसके बाद भी क्या आपको लगता है कि उन्हें नौकरी में प्रमोशन मिल सकता है।
कल एक शख़्स जो अच्छे-भले लिबास में था
बरहना, आज वो उतरा हुआ गिलास में था।
उसे नसीब कफ़न भी नहीं हुआ आख़िर
कि हिस्सेदार जो उस खेत की कपास में था।।
खैर, 'फिगार' साहब के निधन के 14 वर्ष बाद उनकी पत्नी चंद्रा देवी भी भरे पूरे परिवार को छोड़कर अंतिम यात्रा पर निकल गई। बेटी की शादी सोलन के रबौन में हुई है। वह यहीं रहती है। उनका बड़ा बेटा देहरादून में रहता है। 'फिगार' साहब का नाती विक्रम सिंह चौहान फिल्मों में एक्टिग करता है। रानी मुखर्जी की मर्दानी-2 में विक्रम को इंस्पेक्टर अनूप सिंघल के रूप में देखा गया था। उनका दूसरा बेटा अहमदाबाद और तीसरा हैदराबाद में रहता है। सोलन के कुल राकेश पंत, यशपाल कपूर और बिलासपुर के रत्न चंद 'निर्झर' सरीखे लोगों ने उनके गजलों को हिंदी में प्रकाशित करने का बीड़ा उठाया है। जल्दी ही उनकी गजलें और गीत आपको किताब की शक्ल में मिलेगी। इस प्रोजेक्ट पर काम चल रहा है। इस बीच रेख्ता ने उनकी कुछ गजलों व शेरों को ई-बुक में लिपिबद्ध किया है। जिसे ऑनलाइन हिंदी, उर्दू और अंग्रेजी में पढ़ा जा सकता है।